– राकेश अचल
मैं आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर न भी लिखता तो कोई पहाड टूटने वाला नहीं था, क्योंकि आपातकाल में प्रतिरोध करने वालों को मिले जख्म न जाने कब के भर चुके हैं, लेकिन राजनीति की फितरत है कि वो हर जख्म को हरा रखती है, ताकि सत्ता बनी रहे। देश में सरकारी पार्टी भाजपा 25 जून 2025 को आपातकाल की 50वीं सालगिरह को संविधान सुरक्षा दिवस के रूप में मनाकर आपातकाल के हौवे को बनाए रखना चाहती है।
देश में एक पीढी जिसने आपातकाल नहीं देखा और एक पीढी आपातकाल की साक्षी भी है। आपातकाल में जो लोग जेल गए थे भाजपा उन्हें लोकतंत्र सेनानी मानती है और ऐसे लोगों को राजकोष से बाकायदा पेंशन भी दे रही है। आपातकाल के इस प्रतिसाद से पल रहे लोग आपातकाल को जिंदा रखना चाहते हैं, बल्कि मैं तो कहूं तो ऐसे दल और लोग आपातकाल से प्रेरणा लेकर बिना आपातकाल की घोषणा के ही संविधान तथा नागरिक अधिकरों के शत्रु बने हुए हैं। जिस दिन आपातकाल लगा मैं सिनेमाघर से बाहर निकला था, आपातकाल का विरोध करते हुए गिरफ्तारी देने वालों के साथ मैं भी पुलिस वेन में सवार हुआ, लेकिन नफरी के बाद मुझे नाबालिग होने की वजह से बैरंग लौटा दिया गया। उस समय मैं कक्षा 11 का छात्र था। आपातकाल का मतलब नहीं समझता था। मेरे सामने ही आपातकाल हटा भी, चुनाव भी हुआ, कांग्रेस हारी भी, विपक्ष की सरकार भी बनी और ढाई साल में ये सरकार गिर भी गई।
आज मैं एक अघोषित आपातकाल को देख रहा हूं, आज भी सत्ता प्रतिष्ठान के विरोध में बोलने वालों को जेलों में ढूंसा जा रहा है। यातनाएं दी जा रही हैं और संविधान का चीरहरण किया जा रहा है, लेकिन सब कुछ संविधान बचाने के नाम पर आज संविधान बचाने का नारा और जिम्मेदारी कांग्रेस और शेष विपक्ष के पास है। संविधान तब भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ और आज भी सब कुछ संविधान के नाम पर, संविधान की आड में हो रहा है।
पिछले 11 साल के अघोषित आपातकाल में संवैधानिक संस्थाएं क्षीण हुई हैं। विधायिका, न्यायपालिका अपमानित हुई है, लेकिन सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ न 50 साल पहले जैसी विपक्षी एकता है और न आक्रामकता। दुर्भाग्य से कोई जयप्रकाश नारायण भी नहीं है। यही वजह है कि आपातकाल की घोषणा किए बिना काम कर रहे दल लगातार तीसरा चुनाव जीत गए। जनता उन्हें उस तरह से सजा नहीं दे सकी जैसी कांग्रेस को मिली थी। आपातकाल के खिलाफ अकुलाहट तो है लेकिन तीव्रता नहीं है। लोग चुपचाप मार सह रहे हैं। क्योंकि उनके सामने 25 जून 1975 वाले आपातकाल का हौवा है। रुदालियां हैं जो घूंघट डालकर विलाप करती हैं।
जनता के पास प्रतिकार की जो क्षमता 50 साल पहले थी, अब नहीं है। खमियाजा पूरा देश भुगत रहा है। एक दिव्यांग सरकार स्वेच्छाचारिता की सभी हदें तोडकर भी महात्मा बनी हुई है। देश के भीतर-बाहर भारत की छवि धूमिल हो रही है। भारत का अपमान हो रहा है किंतु एक छद्म राष्ट्रवाद का मुलम्मा इस सब पर चढाया जा रहा है। पुरने आपातकाल ने लोकतंत्र की मात्र 19 महीने की अवमानना की थी, लेकिन आज ऐसा होते 11 साल पूरे होने वाले हैं। प्रार्थना कीजिये कि देश में लोकतंत्र बना रहे। अधिनायकवाद की जडें मजबूत न हों, जनतांत्रिक अधिकार न कुचले जाएं।
मजे की बात ये है कि आपातकाल का हौवा खडा करने वाले लोग तब जेल भी नहीं गए थे, वे मेरी तरह नाबालिग भी नहीं थे। वे भूमिगत हो गए थे, गिरफ्तारी से डर गए थे, यही लोग आपातकाल का हवाला देकर देश को गुमराह कर रहे हैं, ये लोग चूंकि लोकतंत्र के छदम सेनानी हैं। बहरहाल मैं आश्वस्त हूं कि देश जब घोषित आपातकाल से बाहर आ गया था तो इस अघोषित आपातकाल से भी यथाशीघ्र बाहर आ जाएगा।