– राकेश अचल
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव के पास डॉक्टरेट की उपाधि है, लेकिन वे भाषा से भी अदावत करते हैं ये आपको पता नहीं होगा। उन्होंने कहा कि उज्जैन में महाकाल की सवारी से बाबस्ता ‘शाही’ शब्द हटा कर उसमें ‘राजसी’ शब्द जोडा जाए। मप्र शासन की साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. विकास दवे ने भी फौरन यादव जी के निर्देश का समर्थन कर दिया और कहा कि शाही सवारी शब्द का प्रयोग अत्यंत शर्मनाक है। संस्कृति और धर्मस्व मंत्री धर्मेन्द्र लोधी भी यादव जी की हां में हां मिलाने कि लिए मजबूर हो गए।
मुझे समझ नहीं आता की संकीर्णता के मामले में भाजपा और उसके नेता कहां तक जाएंगे। पहले विरोधियों से चिढ हुई, फिर मुसलमानों से और अब उर्दू और फारसी से। अमां यार आम बोलचाल में इस्तेमाल होने वाले अंग्रेजी, फारसी, उर्दू के कितने शब्द हैं, कितनों को बदलिएगा। क्या उर्दू, फारसी या अंग्रेजी शब्द बोलने से जिव्हा में छाले पड जाते हैं या धर्म भ्रष्ट हो जाता है। भाषाएं हमारी विरसत है। हमें आपस में जोडने का काम करती हैं। इनमें हिन्दू-मुसलमान नहीं होता। आप तुलसी की रामचरित मानस में सैकडों गैर भाषा के शब्दों को हटा सकते हैं? उर्दू और फारसी के साहित्यकार और बोलने वाले आप जितने ही संकीर्ण होते तो वे न रसखान होते और न मोहम्मद रफी और न नौशाद। अरे बांगडुओ जरा दिल को दरिया (माफ कीजिये समुद्र) बनाओ। वरना आने वाले कल में इतिहास के किसी कूडेदान में पडे मिलोगे। शाही शब्द से हिकारत करने वालों में हिम्मत है तो सबसे पहले मप्र की उर्दू अकादमी को समाप्त करके दिखाएं? लजीज शाही टुकडा खाना छोडें और अगर महाकाल से बात होती हो तो एक बार उनसे भी पूछ लें कि शाही सवारी उन्हें पसंद है या राजसी? दोनों में भेद क्या है? क्या राजसी सामंती शब्द नहीं है?