– राकेश अचल
पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिए हुए चुनावों के नतीजे जो भी आएं, लेकिन उनके आने तक इन पांच राज्यों के साथ ही देश की राजनीति को भारतीय मीडिया ने ‘अटकलों की अरगनी’ पर टांग दिया है। विभिन्न मीडिया संस्थानों द्वारा खुद किए गए और निजी संस्थाओं से कराए गए ‘एक्जिट पोल’ के आधार पर इन पांच राज्यों में सरकारें बनाई और बिगाडी जा रही हैं। जनादेश को भांपने की ये कवायद बडी रोचक है। इन एक्जिट पोल को एक्जेक्ट पोल समझने वालों और खारिज करने वालों की भी कमी नहीं है।
भारत में एक्जिट पोल का इतिहास नया नहीं है। 1971 के आमचुनावों के समय जब मशीनें नहीं थीं, तकनीक नहीं थी, आज जैसा मीडिया नहीं था, उस समय भी ‘अटकलों की अरगनी’ मौजूद थी, लेकिन उस समय की अटकलें आज की तरह एकदम असल परिणामों के नजदीक भी नहीं पहुंच पाती थीं। आज-कल तो मीडिया घरानों और राजनीतिक दलों में एक्जिट पोल करने की होड सी लगी हुई है। इस अटकलबाजी के जरिये देश में बाकायदा सट्टा कारोबार चलता है। इसलिए इस तरह के एक्जिट पोल ज्यादा भरोसेमंद न होते हुए भी सरस तो होते हैं। इनमें चाट-पकौडी जैसा चटपटापन तो होता ही है और ये एक्जिट पोल मीडिया की टीआरपी बढाने का काम भी करते ही हैं।
एक संस्थान का एक्जिट पोल यदि किसी राज्य में कांग्रेस की सरकार बना रहा है, तो दूसरे संस्थान का एक्जिट पोल उसी राज्य में भाजपा की सरकार बनाने की भविष्यवाणी कर रहा है। लेकिन तमाम एक्जिट पोल मध्य प्रदेश में भाजपा की मौजूदा सरकार को सत्ता से एक्जिट करते हुए कांग्रेस को सत्ता में एंट्री दिलाते हुए दिख रहे हैं। यही हाल राजस्थान और छत्तीसगढ के एक्जिट पोल्स का है। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारें दोबारा से सत्ता में आती दिखाई गयीं हैं। तेलंगाना में सत्तारूढ वीआरएस की विदाई और कांग्रेस के सत्तारूढ होने की अटकलों का बाजार गर्म है। सबसे छोटे राज्य मिजोरम में भी कमोवेश इसी तरह की अटकलें हैं।
एक्जिट ओपल असली चुनाव नतीजों के कितने करीब है या नहीं इसका तो तीन दिसंबर को ही पता चलेगा, किन्तु इन नतीजों के आधार पर ही चुनाव लडने वाले प्रत्याशियों ने आने वाले दिनों की तैयारियां कर ली है। देश के सभी प्रमुख टीवी चैनल और यूट्यब चैनल एक्जिट पोल दिखने के लिए जैसे उपवास किए बैठे थे। चुनाव आयोग ने एक्जिट पोल दिखने के लिए 30 नबंवर को शाम पांच बजे का समय तय किया था। घडी की सुई जैसे ही पांच पर पहुंची टीवी चैनलों ने अपने एक्जिट पोल दिखाना शुरू कर दिए। सबके सब चैनल अचानक भविष्य वक्ता बन गए। ज्योतिषियों का धंधा इन सभी ने जैसे छीन लिया। हम जैसे गाल बजाने वाले विश्लेषक भी इन एक्जिट पोल्स पर अपना ज्ञान बघारने के लिए उपलब्ध हो गए। जनता भी चाहे-अनचाहे इन टीवी चैनलों से चिपक ही गई।
किसी भी चुनाव में जनादेश आने से पहले उसके बारे में अटकल बाजियां यानि एक्जिट पोल दिखाना नैतिक है या नहीं, अब इस पर कोई बहस नहीं होती। नैतिकता का लोप चूंकि राजनीति से बहुत पहले हो चुका है, इसलिए एक्जिट पोल दिखने वालों पर भी इसका कोई दबाब नहीं है। एक्जिट पोल में मतदाता ने कितना सच बोला और कितना झूठ इसका अनुमान लगना बेहद कठिन काम है। सच और झूठ का पता तो मतदाता को ‘लाइ-डिटेक्टर’ पर बैठकर ही लगाया जा सकता है, फिर भी चैनल और सर्वेक्षण एजेंसियां मतदाता पर भरोसा करती हैं। कभी-कभी तीर में तुक्का लग भी जाता है और कभी-कभी तमाम एक्जिट पोल औंधे मुंह भी गिरते हैं। चैनल वाले ये जोखिम उठाते हैं, उन्हें ये जोखिम उठाना पडता है।
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के भाजपा के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर इन एक्जिट पोल का कोई असर शायद नहीं होता, इसलिए वे निश्चिंत भाव से विश्व पर्यावरण से में शामिल होने दुबई के लिए उड गए। मोदी जी को पता है कि उनके देश में रहने या न रहने से अब चुनाव नतीजे बदलने वाले नहीं है। होगा वो ही जो रामजी के भक्तों ने रच कर रख दिया है। यदि तीन दिसंबर को पांचों राज्यों में मोदी जी का कमल खिला तो उनका चेहरा भी कमल की तरह खिल जाएगा और नहीं खिला तो उनका चेहरा निर्विकार रहने वाला तो है ही। वे स्वभाव से विनम्र हैं, सिर झुककर जनादेश को शिरोधार्य कर 2024 के आम चुनाव की तैयारी में लग जाएंगे। तीन दिसंबर की दोपहर तक ही देश की राजनीति को ‘अटकलों की अरगनी’ पर लटकाये रखा जा सकता है।