– राकेश अचल
मुझे अपने पत्रकार होने पर जितना गर्व आज नहीं है, जितना की कवि होने पर है, हालांकि मैं रजिस्टर्ड कवि नहीं हूं। बिहार के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने राज्यसभा में नारीशक्ति वंदन विधेयक पर बहस के दौरान ओमप्रकाश बाल्मीक की कविता पढकर जो कमाया है, उसे देखकर मुझे एक बार फिर महसूस हो रहा है कि कविता का ‘अम्ल’ अभी कायम है। फिर कविता चाहे ओमप्रकाश बाल्मीक लिखें या असंग घोषया राकेश अचल। कविता आज भी अपना काम करती है और वो काम करती है जो किसी वंदन विधेयक से नहीं हो सकता।
दरअसल मेरी अक्ल उन बहुत से लोगों की अक्ल जैसी है जो दिमाग में रहने के बजाय घुटनों में रहती है। इसीलिए जब डॉ. मनोज झा ने राज्यसभा में ‘ठाकुर’ कविता पढी तब कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। कविता पार प्रतिक्रिया आने में कई दिन लगे। प्रतिक्रिया तब आई जब अक्ल घुटनों से निकलकर दिमाग तक पहुंची। आज हालत ये है कि कविता बाल्मीक साहब की है और जान सांसत में है मनोज झा की। झा साहब के पीछे पूरी आरजेडी खडी है, मेरा मानना है कि अब मामला सिर्फ आरजेडी और भाजपा का नहीं है। झा के पीछे एक कवि के नाते मैं भी खडा हूं और मुझे उम्मीद है कि झा के पीछे देश का हर कवि खडा होगा, चाहे वो किसी भी भाषा का हो। मैं डॉ. मनोज झा को आश्वस्त करना चाहता हूं कि वे अकेले नहीं हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए किसी फौज-फांटे की जरूरत नहीं पडेगी।
दुनिया जानती है कविता की ताकत को। न जानती हो तो आज जान ले। अमृतकाल में जान ले कि यदि आपके पास कविता है तो आप अकेले नहीं है। कविता आदमी को अकेला रहने भी नहीं देती। कविता में अम्ल और छार दोनों होता है। कविता तलवार से भी ज्यादा धारदार और मारक होती है। कविता लाल मिर्च से भी ज्यादा तीखी होती है। जो कविता को पचा लेता है उसका हाजमा ठीक हो जाता है और जो नहीं पचा पाता वो सी-सी करता फिरता है बाहुबली आनंद मोहन और चेतन आनंद की तरह। मेरे गुरू तुल्य कवि प्रो. प्रकाश दीक्षित कहते थे कि कविता लिखना इतना आसान नहीं, जितना की सुबह-सुबह सूरज का उगना, कविता कोशिश होती है मोमबत्ती से पत्थर पर लकीर उकेरने की।
भाजपा के पास यदि रमेश बिधूडी हैं, तो ये संयोग है कि आरजेडी के पास डॉ. मनोज झा जैसे सांसद हैं। झा बिना गाली-गलौच के भी अपनी बात कह कर संसद को ही नहीं बल्कि देश के उस वर्ग को गरमा सकते हैं जो आज भी शोषक है। आज भी जो मनुष्य को मनुष्य नहीं मानता। आज भी उसकी निगाह में उंच-नीच हिलोरें मारती है। खुदा का शुक्र है कि आनंद मोहन संसद में नहीं हैं, अन्यथा वे तो डॉ. मनोज झा की जुबान खींच ही लेते। अभी तो वे जुबान खींचने की धमकी भर दे रहे हैं। धमकी देने वाले भाजपा में हमेशा से पुरस्कृत किए जाते हैं।
डॉ. मनोज झा को जिस कविता को सुनाने के बाद जान से मारने की धमकी दी जा रही है वो उनकी लिखी नहीं है। कविता उत्तर प्रदेश के बरला गांव मुजफ्फर नगर के उन ओमप्रकाश बाल्मीकि की है जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। ओमप्रकाश बाल्मीकि नाम के ही नहीं बल्कि जन्म से भी बाल्मीकि थे। आज अगर वे होते तो पूरे 73 साल के होते और बहुत खुश होते अपनी कविता की मार को देख कर। ये तो अच्छा है कि भाजपा के नरसिंहों को ज्यादा पढना-लिखना नहीं आता, अन्यथा वे ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ पढकर या तो खुदकुशी कर लेते या फिर सुधर जाते, धमकियां देना भूल जाते। बाल्मीक ने लिखा था कि ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’।
देश में अगले साल आम चुनाव होने वाले है। अगले महीने देश के पांच राज्यों की विधानसभाओं के भी चुनाव होने है। राजनितिक दलों को खासकर भाजपा को चाहिए कि वो बाहुबलियों, धनपशुओं या अनपढों को अपना प्रत्याशी बनाने कि बजाय कवियों को अपना प्रत्याशी बनाए। जनप्रतिनिधि अगर कवि होगा तो मनोज झा की तरह अपने प्रतिद्वंदी को कविताएं सुनकर लाजबाब कर देगा। मैं चुटकुले सुनाने वाले कवियों की बात नहीं कर रहा। मैं राम कथाएं सुनाने वाले कवियों की भी बात नहीं कर रहा, मैं उन कवियों की बात कर रहा हूं जो चेतना के कवि हैं। भले ही वे दलित हों या सवर्ण। ठाकुर हों या बाल्मीकि। वैसे भी यदि कोई मूलत: कवि है तो उसके भीतर बैठा ठाकुर-ब्राह्मण अपने आप या तो मर जाता है या खिसक लेता है।
देश का दुर्भाग्य है कि राजनीति में कवियों के लिए जगह सीमित है। राजनीति में गिने-चुने कवि हैं। कविता से रार रखने वाले, कविता से भी खार खाने वालों की संख्या राजनीति में ज्यादा है। राजनीति भी कविता को कहां सींचती है। राजनीति को चारण-भाट पसंद होते हैं। कविता आज भी उनकी जय बोल रही है जो देश के खेतों में काम करते हैं, सीमाओं पर पहरा देते हैं। मुझे हैरानी होती है कि उस बिहार के भाजपा नेता और पूरी भाजपा कविता के प्रहार से भयभीत है, जिस बिहार ने देश को एक से बढकर एक कवि दिए हैं। ‘कलम आज उनकी जय बोल’ जैसी अमर कविता लिखने वाले रामधारी सिंह दिनकर बिहार की धरती के ही सपूत थे। क्या आनंद मोहन और उनके जैसे लोग दिनकर की जुबान भी खींच लेते? दिनकर ने तो सीना ठोंककर लिखा था कि
‘अंधा चकाचौंध का मारा, क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के, सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल’,
बिहार के ठाकुरों को ही नहीं पूरे देश के शोषक वर्ग को पहले इतिहास पढना चाहिए, फिर धमकियां देने के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें जान लेना चाहिए की कवि किसी जाति को इंगित नहीं करते। ओमप्रकाश बाल्मीकि की कविता यदि ठाकुरों को इंगित कर लिखी गई है तो बिहार में तो कर्पूरी ठाकुर भी होते हैं। क्या ये कविता कर्पूरी की जाति को निशाने पर रखकर लिखी गई होगी? मुझे भाजपा पर, उसके सांसदों पर गुस्सा बिल्कुल नहीं आता, दया आती है। क्योंकि उनके पास न तो भाजपा के पितृ-पुरुष अटल बिहारी बाजपेयी की तरह भाषा का लालित्य है और न साहित्य का ज्ञान। वे बेचारे कविता की ताकत को क्या समझेंगे। उन्हें क्षमा किया जाए।
मैं मनोज झा को नहीं जानता, उनसे कभी मिला भी नहीं। एक-दो टीवी डिबेट में जरूर उनके साथ बैठना हुआ है। इस बिना पर मैं कहता हूं कि मनोज झा जैसे सांसद हमारी राजनीति की जरूरत है। उनका समर्थन किया जाना चाहिए। मनोज झा पर किसी भी तरह का हमला एक आरजेडी सांसद पर नहीं, बल्कि इस देश के साहित्य पर भी हमला है। सांसद पर भी हमला है और लोकतांत्रिक समाज पर भी हमला है। इसलिए आइये मनोज झा का साथ दीजिए। कविता का साथ दीजिए।